माना जा रहा था कि संसद के मॉनसून
सत्र से कुछ ख़ास निकलकर नहीं आएगा मगर यह काफ़ी अच्छा रहा. ऐसा इसलिए हुआ
क्योंकि सरकार ने नई नीति अपनाई थी- युद्ध जीतना है तो छोटी लड़ाइयां हारते
नज़र आओ.
संसद के कुछ आख़िरी सत्र बेकार रहे क्योंकि विपक्ष ने कई
सारी समस्याओं को लेकर दोनों सदनों को चलने नहीं दिया. सरकार के लिए यह
चिंता की बात रही कि इस दौरान बहुत कम विधायी कार्य पूरे हो पाए. उदाहरण के लिए बजट सत्र 2018 में लोकसभा में सिर्फ 21 प्रतिशत समय में ही काम हो पाया जबकि राज्यसभा में 27 फ़ीसदी समय में ही काम हुआ. बजट पर लोकसभा में 15 घंटों तक चर्चा हुई और राज्यसभा में 11 घंटों तक.
यह बात चिंताजनक है क्योंकि 2000 से लेकर अब तक लोकसभा 53 घंटों तक आम बजट पर चर्चा करती रही है जबकि राज्यसभा में औसतन 23 घंटों की.
सत्र के दूसरे भाग में 18 मिनट में वित्त विधेयक पारित हुआ जिसमें किसी सांसद ने हिस्सा नहीं लिया. 2000 से लेकर अब तक ऐसा पहली बार हुआ जब वित्त विधेयक पर सबसे कम समय तक चर्चा हुई.
इसका कारण क्या रहा? विपक्ष सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव की मांग करता रहा और इसी कारण किसी कार्यवाही में काम नहीं हो पाया.
ऐसे में सरकार ने तय कर लिया कि अब बहुत हुआ. जब विपक्ष ने इस सत्र में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया, लोकसभा में बेहद कमज़ोर तरीके से इसकी मांग उठाई गई.
सरकार चाहती तो इसपर टाल-मटोल कर सकती थी मगर उसने विधेयक पारित कराने में विपक्ष का सहयोग पाने के इरादे से ऐसा नहीं किया.
हालात अनुकूल हों, तब भी अविश्वास प्रस्ताव एक सेफ़्टी वॉल्व की तरह काम करता है. एक ऐसा ज़रिया, जिससे विपक्ष को अपनी बात रखने का मौका मिलता है. यह नरेंद्र मोदी सरकार का पहला (और शायद आख़िरी) अविश्वास प्रस्ताव था.
इससे जीत-हार का फ़ैसला हो गया- इसमें जुझारू प्रधानमंत्री इस बात का हिसाब देते आए कि नौकरियां पैदा करने, आर्थिक सुधारों और सख़्त फ़ैसलों (जैसे कि नोटबंदी और सरकारी बैंकों के ख़ातों की जांच करने से कई ताकतवर लोगों के जेल पहुंचने) से उनकी सरकार क्या हासिल कर पाई है.
मगर इस सत्र में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी राजनीति रणनीतिकार के तौर पर परिपक्व होते नज़र आए.
वह जानते थे कि निगाहें उनपर होंगी, राहुल ने इस मौके का सरकार के प्रहारों और सोशल मीडिया पर मज़ाक उड़ाए का 'गांधियों' के अंदाज़ में जवाब देते हुए पूरा लाभ उठाया.
वह यह कहते हुए आश्चर्यचकित नज़र आ रहे प्रधानमंत्री मोदी के गले मिले कि कांग्रेस नफ़रत की राजनीति को अस्वीकार करती है. इसके बाद मारी गई आंख भले ही कुशल राजनेता जैसी नहीं थी मगर लोगों के ज़हन में प्रधानमंत्री का जवाब नहीं बल्कि वह चर्चा छपी रहेगी जिसका अंत एक झप्पी के साथ हुआ था.
इस बहस में जीत किसकी हुई, इसमें कोई शक नहीं. मगर इस बहस के बाद सरकार को लगा कि अब संसद में काम लेने का सही समय है.
दोनों सदनों ने फ्यूजिटिव इकनॉमिक ऑफेंडर्स बिल पारित किया जिसके माध्यम से उन लोगों को सज़ा देने की कोशिश होगी, जिन्होंने 100 करोड़ या इससे अधिक की कीमत का आर्थिक अपराध किया हो देश छोड़कर चले गए हों और वापस न आ रहे हों.
ज़ाहिर है, यह बिल उन उद्योगपतियों को लेकर बनाया गया जिनकी बैंकों पर हज़ारों करोड़ की देनदारी है जैसे कि विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी.
इस सत्र में रिकॉर्ड समय में इस विधेयक ने क़ानून की शक्ल ले ली. दोनों सदनों ने प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट में संशोधनों को भी पारित किया जो साल 2013 से लटके हुए थे.
यह क़ानून आपराधिक सांठगांठ को पुनर्परिभाषित करता है. ख़ासकर उन बैकर्स के लिए जो यह तर्क देते हैं कि तब कर्ज देने के फ़ैसले को भ्रष्टाचार नहीं कहा जा सकता, जब तक कि उनकी आय और संपत्ति में असंगति न हो यानी रिश्वत का कोई सबूत न हो.
हर हफ्ते या एक आध हफ्ता छोड़कर बैंक का कोई अधिकारी कर्ज लेने वालों द्वारा जानबूझकर भुगतान करने के मामले में जेल पहुंच रहे हैं भले ही वैध ढंग से दिए गए कर्ज़ के कारण गंभीर नुक़सान हो रहा हो.
ये दो ऐसे विधेयक हैं जिन्हें संसद में अविश्वास प्रस्ताव के बाद पारित किया गया. सरकार ने एक और क़दम पीछे खींचा जब उसने ट्रिपल तलाक़ बिल पर चर्चा टाल दी. पत्नी को ट्रिपल तलाक के माध्यम से तलाक देने वाले पति को तीन साल की सज़ा और ज़मानती अपराध से उम्रकैद में बदलने के केंद्रीय कैबिनेट के संशोधन के बाद इस बिल को संसद में पेश किया जाना था.
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